Supreme Court Of India: अग्रिम जमानत पर सूप्रीम कोर्ट का बड़ा आदेश, कहा - 'हाईकोर्ट-सेशंस कोर्ट के न्यायाधिकार से बाहर भी मिलेगी बेल'

 
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सुप्रीम कोर्ट ने अग्रिम जमानत के मामले में बड़ा आदेश दिया है। अदालत ने कहा है कि अग्रिम जमानत के मामले में अब हाईकोर्ट और सेशंस कोर्ट उन अदालतों की न्याय सीमा के बाहर दर्ज प्राथमिकी के मामले में भी जमानत दे सकते हैं।

Supreme Court Of India: सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अग्रिम जमानत के मामलों में हाईकोर्ट और सेशंस कोर्ट का न्यायाधिकार विस्तृत होता है। देश की सबसे बड़ी अदालत ने एक अहम फैसले में कहा, अग्रिम जमानत पाने के लिए निचली अदालतों या हाईकोर्ट में दायर याचिका के आधार पर न्याय सीमा से परे भी सीमित अग्रिम जमानत दी जा सकती है।

यानी भले ही FIR अदालत की न्यायसीमा के बाहर दर्ज कराई गई हो, अदालतें आरोपी को अग्रिम जमानत देने पर विचार कर सकती हैं। संविधान से नागरिकों को मिले जीवन, निजी स्वतंत्रता और गरिमा के साथ जीने के अधिकार की रक्षा करने का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक असर वाले फैसले में कहा कि गिरफ्तारी की आशंका से जूझ रहे शख्स को अग्रिम जमानत दी जा सकती है।

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भले ही प्राथमिकी संबंधित अदालत के न्यायाधिकार से बाहर दर्ज कराई गई हो। हालांकि, शीर्ष अदालत ने साफ किया कि ऐसे मामले में जमानत सीमित समय के लिए ही दी जा सकती है। जस्टिस बीवी नागरत्ना और न्यायमूर्ति उज्जल भुयान की पीठ ने अग्रिम जमानत के कानून पर जो टिप्पणी की है, इसका देशव्यापी असर हो सकता है।

खास तौर पर आपराधिक मामलों में आरोपियों को राहत मिल सकती है, जहां उन्हें दूसरे राज्यों में गिरफ्तार किए जाने की आशंका बनी रहती है। न्यायाधिकार से बाहर जमानत के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कई अहम शर्तें भी तय की हैं।

अदालत ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 438 के  तहत हाईकोर्ट या सेशंस कोर्ट आरोपी को अंतरिम राहत दे सकती है। अग्रिम जमानत की अपील पर फैसला लेते समय निचली अदालतों को यह अधिकार न्यायाधिकार के बाहर भी होगा, जहां सीमित अवधि के लिए अग्रिम जमानत दी जा सकती है।

अदालत ने साफ किया कि दूसरे राज्यों के मामलों में अग्रिम जमानत देने की शक्ति का प्रयोग केवल असाधारण और बाध्यकारी परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए। यह फैसला राजस्थान की एक महिला की अपील पर आया।

याचिकाकर्ता ने राजस्थान के झुंझुनू जिले के चिरावा पुलिस स्टेशन में दहेज उत्पीड़न की प्राथमिकी दर्ज कराई है। इस संबंध में महिला से अलग हो रहे पति और उसके परिवार के सदस्यों को बेंगलुरु की स्थानीय अदालत से अग्रिम जमानत मिली थी। महिला ने जमानत दिए जाने के फैसले को चुनौती दी थी।

क्या एक सत्र अदालत अपनी न्याय सीमा के बाहर दर्ज एफआईआर के संबंध में सीआरपीसी की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत दे सकती है? इस सवाल पर सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति नागरत्ना ने अपने 85 पेज के फैसले में कहा, राहत दी जा सकती है।

हालांकि, उन्होंने कई जरूरी शर्तें भी तय कीं। पीठ ने कहा, "सीमित अग्रिम जमानत का आदेश पारित करने से पहले, एफआईआर दर्ज करने वाले जांच अधिकारी और लोक अभियोजक को सुनवाई की पहली तारीख पर नोटिस जारी किया जाएगा। हालांकि जमानत के कुछ मामलों में अदालत के पास अंतरिम अग्रिम जमानत देने का विवेक होगा।"

पीठ ने कहा कि "सीमित अग्रिम जमानत" देने के आदेश में यह कारण दर्ज होना चाहिए कि आवेदक को अंतर-राज्यीय गिरफ्तारी की आशंका क्यों है? यह भी दर्ज किया जाना चाहिए कि सीमित अग्रिम जमानत या अंतरिम सुरक्षा, जैसा भी मामला हो, आरोपी को बेल दिए जाने पर मामले की जांच पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

अग्रिम जमानत से पहले अदालत को देखना होगा कि जिस राज्य में अपराध का संज्ञान लिया गया है, वहां सीआरपीसी की धारा 438 में राज्य सरकार के स्तर पर कोई संशोधन हुआ है या नहीं? क्या इसके माध्यम से उक्त अपराध अग्रिम जमानत के दायरे से बाहर रखा गया है?

सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि अग्रिम जमानत मांगने वाले आरोपी को न्यायाधिकार वाली अदालत से जमानत मांगने में असमर्थता के बारे में अदालत को संतुष्ट करना होगा। उसे बताना होगा कि जिस अदालत के पास अपराध का संज्ञान लेने का क्षेत्रीय अधिकार है, उसे उसी अदालत से अग्रिम जमानत क्यों नहीं मिल सकती?

सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश के बाद पटना और कलकत्ता हाईकोर्ट के आदेश को खारिज कर दिया है। दोनों उच्च न्यायालयों ने अपने आदेश में कहा था कि हाईकोर्ट अपने न्यायाधिकार के बाहर जाकर अग्रिम जमानत नहीं दे सकते। अदालचों ने यह भी कहा था कि आरोपी को सीमित अवधि की जमानत या ट्रांजिट बेल पर भी रिहा नहीं किया जा सकता।

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