प्रकृति की चेतावनी को नजरअंदाज करना पड़ सकता है भारी
यदि इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिमोट सेंसिंग के वरिष्ठ वैज्ञानिकों की मानें तो बढ़ते तापमान का असर आने वाले दिनों में तेजी से देखा जाएगा। संभावना तो यहां तक व्यक्त की जा रही है कि यही हालात रहे तो जीवन-दायिनी गंगा-जमुना नदी में जल स्तर कम होगा और हालात यहां तक हो सकते हैं कि गंगा-जमुना के बहाव क्षेत्र में तेजी से पानी का स्तर कम होगा।
यहां तक कि इस क्षेत्र में पानी का संकट तक आ सकता है। यह चेतावनी आज की नहीं है अपितु भूविज्ञानियों व पर्यावरणविदों द्वारा लंबे समय से दी जाती रही है। प्रकृति लगातार डेढ़-दो दशक से चेताती जा रही है पर अनदेखा किया जा रहा है।
हालिया दशकों में हिमालय पर्वत माला श्रृंखला में सर्वाधिक भूगर्भीय हलचल देखने को मिल रही है। साल में एक दो नहीं अपितु आये दिन धरती हिलने लगी है। भूस्खलन होने लगे हैं। साल में एक दो बार तो बड़े भूस्खलन आम होते जा रहे हैं।
देवभूमि आज भूगर्भीय हलचल का केन्द्र बन गई है। हिमालय श्रृंखला के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। यहां तक कि हिमालयी श्रृंखला से निकलने वाली नदियों के उद्गम स्थल लगातार पीछे खिसकते जा रहे हैं। पिछले सालों में विनाश के भयावह हालातों से हम रूबरू हो चुके हैं।
दरअसल गंगा-जमुना के उद्गम स्थल या यों कहें कि संपूर्ण उत्तराखंड क्षेत्र जिसमें चार धाम आते हैं, सनातन काल से आस्था का केन्द्र रहे हैं। इनकी अपनी अहमियत रही है तो प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने में भी हिमालय क्षेत्र की अपनी भूमिका रही है। समय का बदलाव देखिये कि यहां तक तो सब ठीक है कि इस क्षेत्र का तेजी से विकास हुआ है। आज चारधाम की यात्रा सहज और आम आदमी की पहुंच में आई है।
मुझे और मेरी जैसी पुरानी पीढ़ी के लोगों को अच्छी तरह से याद है कि चार धाम की यात्रा पर जाने से पहले और यात्रा से सकुशल वापसी पर वृहद आयोजन होते थे। हमने तो यहां तक देखा है कि गंगाजी की यात्रा करने पर चाहे वह हरिद्वार की हो या ऋषिकेश की, गंगाजल के पूजन का भव्य आयोजन होता था जिसे गंगोज के नाम से जाना जाता था। घर-परिवार और नाते-रिश्तेदार जुटते थे, पूजन-हवन होता था और फिर सहभोज तो होना ही था। आज परिस्थितियों में बदलाव आया है।
गंगा-जमुना का यह पवित्र क्षेत्र आज आस्था से अधिक पर्यटन का केन्द्र बन गया है। लोग घूमने के बहाने जाते हैं। यहां तक तो ठीक कहा जा सकता है पर जिस तरह से प्रतिबंधित वस्तुओं खासतौर से प्लास्टिक और इसी तरह की सामग्री का कचरा केन्द्र बहाने से पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्या आम हो गई है। लोग चंद घंटों के लिए जाते हैं और प्लास्टिक कचरा और अन्य सामग्री वहां छोड़ आते हैं। इसी तरह से विकास के नाम पर जिस तरह से कंक्रीट का जंगल विकसित किया जा रहा है उसे भी पर्यावरण की दृष्टि से उचित नहीं माना जा सकता है।
हजारों की संख्या में प्रतिदिन वाहनों की रेलमपेल से प्रदूषण फैल रहा है वो अलग। इससे क्षेत्र के वातावरण में बदलाव आ रहा है। तापमान बढ़ने लगा है। प्रकृति में विकृति की जा रही है। आखिर इसकी भी कोई सीमा होनी ही चाहिए। हिमालय क्षेत्र में तापमान वृद्धि के कारण बर्फ पिघलने की रफ्तार तेज हो गई है।
पिछले चार साल के सेटेलाइट डेटा विश्लेषण ही चौंकाने व चेताने के लिए काफी हैं। ऐसे में समय रहते उपाय खोजने ही होंगे। नहीं तो जीवनदायिनी गंगा-जमुना में पानी तो कम होगा ही साथ ही क्षेत्र का सारा संतुलन ही बिगड़ के रह जाएगा।
हालांकि जहां यह स्थानीय कारक हैं वहीं देश दुनिया में प्रकृति के अत्यधिक दोहन और कार्बन उत्सर्जन का परिणाम भी कहीं ना कहीं यहां भी परिलक्षित हो रहा है। दुनिया के अन्य ग्लेशियरों की तरह यहां भी ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। परिणाम साफ दिखाई देने लगे हैं।
समुद्र के किनारे के शहरों की डूबने की भविष्यवाणियां आम होती जा रही हैं। चक्रवाती तूफान और जंगलों में आग आम होती जा रही है। सुनामी जैसी घटनाएं बढ़ी हैं तो एक तूफान जाता नहीं है कि दूसरे की चेतावनी आ जाती है। हजारों लोग प्रभावित हो जाते हैं तो अरबों खरबों की संपत्ति इन तूफानों की भेंट चढ़ जाती है।
हालांकि दुनिया के देश पर्यावरण संकट को लेकर के गंभीर होने लगे हैं। प्रयास भी हो रहे हैं पर परिणाम अभी दिखाई नहीं दे रहे हैं। एक बात साफ हो जानी चाहिए कि प्रकृति से संयोग रहेगा तो विकास होगा और प्रकृति से खिलवाड़ होगा तो हमें परिणाम में विनाश ही मिलना है।
ऐसे में गंगा-जमुना में जल स्तर कम होने की चेतावनी दरअसल समय रहते चेतने की चेतावनी के रूप में देखी जानी चाहिए नहीं तो आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करने वाली है। नमामी गंगे के सकारात्मक परिणाम अभी दूर ही दिखाई दे रहे हैं।
वहीं सरकारों को ऐसा सिस्टम विकसित करना होगा जिससे प्रतिबंधित व दुष्प्रभाव छोड़ने वाली वस्तुओं का प्रवेश ही निषिद्ध हो जाए। निर्माण व विकास कार्यों में भी पर्यावरण सहयोगी वस्तुओं का ही उपयोग हो ताकि क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखे जा सके। पर्यावरण प्रेमियों को भी इसके लिए आगे आना होगा।
साभार - डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा