High Court: एससी-एसटी एक्ट के हर मामले में चार्जशीट फाइल करना अनिवार्य नहीं : HC

 
High Court: It is not mandatory to file charge sheet in every case of SC-ST Act: HC
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इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसले में अनुसूचित जाति, जनजाति (एससी /एसटी) अधिनियम के प्रावधानों को स्पष्ट करते हुए कहा है कि उक्त अधिनियम के तहत दर्ज मामलों में विवेचना अधिकारी के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वह हर मामले में आरोप पत्र ही दाखिल करे।

High Court: इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसले में अनुसूचित जाति, जनजाति (एससी /एसटी) अधिनियम के प्रावधानों को स्पष्ट करते हुए कहा है कि उक्त अधिनियम के तहत दर्ज मामलों में विवेचना अधिकारी के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वह हर मामले में आरोप पत्र ही दाखिल करे। अदालत ने कहा कि जहां साक्ष्यों के आधार पर उक्त अधिनियम के तहत मामला बन रहा हो, उन्हीं मामलों में आरोप पत्र दाखिल किया जा सकता है।

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यह फैसला न्यायमूर्ति राजन रॉय एवं न्यायमूर्ति संजय कुमार पचौरी की पीठ ने ज्ञानेन्द्र मौर्या उर्फ गुल्लू की याचिका पर पारित किया। याची ने अधिनियम की धारा 4 (2) (ई) एवं अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) नियम के नियम 7(2) को असंवैधानिक घोषित किए जाने की मांग की थी। उसका कहना था कि अधिनियम की धारा 4(2)(ई) एवं नियम 7(2) विवेचना अधिकारी को विशेष अदालत में आरोप पत्र दाखिल करने का दायित्व देते हैं।

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याचिका में कहा गया कि दोनों प्रावधानों में ‘आरोप पत्र’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है जिसका आशय है कि विवेचना अधिकारी अभियुक्त के विरुद्ध ‘आरोप पत्र’ ही दाखिल कर सकता है, विवेचना के दौरान अभियुक्त के खिलाफ साक्ष्य न पाए जाने पर भी वह ‘अंतिम रिपोर्ट’ दाखिल करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। पीठ ने याची की इस दलील को खारिज करते हुए कहा कि उक्त प्रावधानों में ‘पुलिस रिपोर्ट’ के बजाय ‘आरोप पत्र’ शब्द के प्रयोग के कारण याची के मन में शंका है।

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अदालत ने कहा कि उक्त प्रावधानों को तर्कसंगत तरीके से पढे़ जाने की आवश्यकता है, कानूनी प्रावधानों को अतार्किक तरीके से नहीं पढ़ा जा सकता है। अपने फैसले में अदालत ने कहा कि यह स्पष्ट किया जाता है कि उक्त अधिनियम के तहत दर्ज प्रत्येक प्राथमिकी में विवेचनाधिकारी के लिए आरोप पत्र दाखिल करना अनिवार्य नहीं है। 

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गंगाजल की सैंपलिंग में मानक का पालन नहीं कर रही एसटीपी : हाई कोर्ट

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने गंगा प्रदूषण मामले में एक बार फिर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए। एसटीपी की क्षमता से अधिक पानी जाने से शोधन व्यवस्था पर सवाल खड़े किए। माघ मेले में अस्थाई एसटीपी व नाले के बायोरिमेडियल शोधन की खामियों का जिक्र कर कहा, अनावश्यक धन खर्च हो रहा है। गंगाजल की सैंपलिंग के तरीके पर भी सवाल उठाए। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की कार्यवाही परखने को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से रिपोर्ट तलब की है।

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कोर्ट ने कहा कि भारी अंतर पता चला है कि एसटीपी मानक का पालन नहीं कर रही, जबकि राज्य प्रदूषण बोर्ड सही होने की रिपोर्ट दे रहा है। गंगा प्रदूषण पर जनहित याचिका की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश राजेश बिंदल, न्यायमूर्ति एम के गुप्ता तथा न्यायमूर्ति अजित कुमार की पूर्णपीठ कर रही है। अगली सुनवाई 22 फरवरी को होगी।

कोर्ट में तलब प्रमुख सचिव पर्यावरण, उप्र ने सफाई दी, कहा कि हलफनामे अधिवक्ता के मार्फत ही दाखिल किए जाएंगे। महाधिवक्ता अजय कुमार मिश्र ने कहा, सरकार ने इस संबंध में उचित निर्देश जारी कर दिया है। पिछली तारीख पर प्रमुख सचिव के दाखिल हलफनामे की भ्रमात्मक खामियों को लेकर कोर्ट ने उन्हें बुलाया था। उन्होंने सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट सहित नालों की सफाई की योजना की जानकारी दी।

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महाधिवक्ता ने कहा, वर्ष 2025 के महाकुंभ तक गंगा में प्रदूषित पानी जाने से रोकने व शोधन क्षमता बढ़ाने की योजना तैयार कर सरकार लागू करेगी। प्रमुख सचिव ने कहा कि बोर्ड स्वायत्त संस्था है, उसे कार्रवाई करने का अधिकार है। कोर्ट ने कहा, बायोरिमेडियल सिस्टम का इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है। शोधन में खानापूरी की जा रही है। बैक्टीरिया गंगा में जा रहे।

न्यायमित्र अरुण कुमार गुप्ता ने इजराइल की तकनीक का हवाला दिया। कहा, इससे गंदे पानी को पीने लायक बनाया जा रहा है। उन्होंने कानपुर के चमड़ा उद्योगों से गंगा प्रदूषण का मुद्दा उठाया। साथ ही प्रयागराज में 40 प्रतिशत सीवर लाइन एसटीपी से न जोड़े जाने से गंगा प्रदूषित होने की बात की। अधिवक्ता विजय चंद्र श्रीवास्तव ने कहा कि एसटीपी से शोधित पानी को सिंचाई के काम लाने की योजना पर अमल करने का आदेश दिया जाए।